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ABOUT THE BOOK
इस संसार में असंख्य मनुष्य विचरण करते हैं। परन्तु किसी की चाल-ढाल, रंग-रूप, रहन-सहन, खाना-पीना, औढना-पहनना, कद-काठी, सोच-विचार चेहरा-मोहरा, आदत, सामाजिक तथा आर्थिक दशा में समानता नहीं होती। आपस में इतनी विविधताएं होने के बावजूद उनमें एक समानता होती है कि अपना जीवन सुचारू रूप एवं संतुष्टि से निर्वाह करने के लिए सभी को एक दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है। जीवन भर मनुष्य एकाकी अर्थात ठूँठ बनकर व्यतीत नहीं कर सकता। एक पड़ाव पर आकर उसे किसी न किसी के सहारे की जरूरत पड़ ही जाती है। मेरा यह उपन्यास ठूंठ भी मेरी तरह से एक ऐसा ही प्रयास है जिसको एक छोटी सी घटना ने जन्म दिया है तथा मेरे विचारों ने उसे पंख लगा दिए हैं। इसमें दर्शाया गया है कि कैसे कुंती द्वारा एकाकी जीवन व्यतीत करने की लाख कोशिशों के बावजूद अंत में परिस्थितियों वश उसे अपना अहंकार, द्वेष, अलगावपन अर्थात ठूंठपन त्यागना पड़ा।
ABOUT THE AUTHOR
मेरा जन्म 02 मार्च 1946 को नारायणा गाँव में हुआ था। मेरी प्रारम्भिक शिक्षा, पाँचवी तक, गाँव के ही सरकारी मिडिल स्कूल में हुई। इसके बाद इंडियन एग्रीक्ल्चर रिसर्च इंस्टीच्यूट पूसा के स्कूल से हायर सैकेंडरी करके, सन् 1963 में, मैं भारतीय वायुसेना में भर्ती हो गया। वहाँ नौकरी के दौरान मैंने जोधपुर विश्वविघालय से स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की तथा वायुसेना से ‘डिप्लोमाइन इलैक्ट्रोनिक्स’ का हकदार भी बना। मार्च 1980 में भारतीय वायुसेना की नौकरी छोड़कर मैंने भारतीय स्टेट बैंक में नौकरी कर ली। सन् 2000 में जब बैंक में हिन्दी प्रतियोगिता हुई तो मेरे द्वारा लिखित एक संस्मरण ‘मैं उन्हें कुछ कह न सका’ की प्रविष्ठी को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। यहीं से मेरे अन्दर रचनाएँ लिखने की जागृति पैदा हुई। आशा है मेरे साथ घटित कुछ तथ्यों पर आधरित मेरा यह उपन्यास ‘ठूँठ’ मेरे पहले उपन्यास ‘प्तिआत्म तृ’ की तरह आपको रोचक एवं पठनीय लगेगा।
CONTENTS
समर्पित 7 आर्शिवादन 9 सर्जन 11 भूमिका 13 समीक्षा 15 1. ठूँठ 19 2. एहसान फरामोश 27 3. विघटनकारी 33 4. खुली लगाम की घोड़ी 55 5. पूत के पाँव 63 6. बे-लगाम की घोड़ी 81 7. रिस्ता पक्का 89 8. खाऊँ पाडूँ मानस की सी बाँस 103 9. चिन्तन 121 10. ठूंठता का अंत 135
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